सोंचा है तुझे हर पल में
चाहा है तुझे बढ़ हद से
हर सपने दिए हैं खुद के
हर आंसू पिए हैं तेरे
सब कुछ किया है मैंने
तुम फिर भी हुए न मेरे
तोडा है हर बंधन को
झुठलाया है सब को मैंने
सितम सहे हैं हर एक के
तुझे पाने को रब मेरे
सब कुछ किया है मैंने
तुम फिर भी हुए न मेरे
हर हर्फ़ है तुझको ले के
हर एक शेरो में मेरे
मन के कुचे थामे जब भी
बस चित्र उभरते हैं तेरे
सब कुछ किया...
देखा था जब से तुझको
सपनो में है तू मेरे
नींदें होती थी रातों की
अब वो भी हुए हैं तेरे
सब कुछ किया...
छुआ जो था मुझको तुने
क्या कशिश थी उस होने में
जादू सा हुआ था उस पल
जब महका जुल्फों को तेरे
सब कुछ किया...
वो साँसों की गर्मी है
अब तक चेहरे पे मेरे
वो अधरों* की नरमी है
अब तक लबों पे मेरे
सब कुछ किया...
मान लिया था उसे सब कुछ
जो वचन दिए थे तुने
सच मान लिया मैंने
हर एक विनोद* को तेरे
सब कुछ किया...
पास न होके भी बसती
है तू घर में मेरे
जीवन में न तू, तो क्या,
तू अब भी है सपनो में मेरे
सब कुछ किया है मैंने
तुम फिर भी हुए न मेरे...तुम फिर भी हुए न मेरे....
-कुमार प्रकाश सिंह 'सूरज'
*अधरों- होंठों
*विनोद- मजाक, मसखरे