Total Pageviews

Saturday, May 17, 2014

इंसानियत

इंसानियत



सांसें अगर है बाज़ारी तमाशा
तो हमको बिकना गवारा नहीं है
अपने अगर हैं जीने में मुसीबत
हम फिर इंसा कहलाते ही क्यों हैं


आदत हो चुकी है रौंदकर बढ़ जाना
यूँ चलने को पाँव हमें उसने बख़्शा नहीं है
डरना डराना ही दिखता है हरसू
ज़िन्दगी का फ़साना कतई ये नहीं है


फिकर की पहुँच सिक्को पे है जो ठहरी
गली के कुत्ते फिर हमसे भले हैं
तोहफों मुलाक़ातों से रुसवा मुहब्बत
तो हम फिर घर से निकलते ही क्यों हैं


आओ जीने की कोशिश करे हम
यूँ मरने को ज़िंदा कहते नहीं है
खुद को भुला कर बन जाओ सभी के
जीने का मकसद तो बस यही है
जीने का मकसद तो बस यही है...


                                                 - कुमार प्रकाश सिंह  'सूरज'