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Saturday, March 24, 2012

माँ



कंठ में वाणी, इन्द्रियों में उर्जा का संचार किया
देख सकूँ मै सब कुछ, वो दृष्टि तुने प्रदान किया
ज्ञात करूँ मै सब कुछ, उस सात्विक ज्ञान का पाठ दिया
जीत सकूँ मैं सब कुछ, उस प्रबलता का वरदान दिया
माँ तुने मेरी इस श्रृष्टि का है निर्माण किया।




भूख मिटाती पहले मेरी, तब ही जा कुछ ग्रहण किया
सुख को मेरे सोंचकर, अपना सब कुछ त्याग दिया
हर पीड़ा को मेरे, ममता से अपने निष्प्राण किया
आंच न आये मुझपे, हर पल आँचल का छाँव दिया
समृद्धि-सौभाग्य को मेरे, हर इष्ट को ले उपवास किया।




कालचक्र अपनी गति से चलता रहा, सब कुछ बदलता रहा
मगर तुम न बदली माँ, तुमने तो जैसे प्रण था लिया
युवक हो चला था मै, पैरों पे खड़ा होने को था मै
डरती थी तुम, जब जब मैंने चौखट पार किया
अब तो न जाने कैसी होगी तुम...... माँ, तुने क्यों इतना प्यार किया।




दुत्कार दिया मैंने जब भी, तुने चुटकी में उसको भुला दिया
तेरी तरह तो मैं हूँ ही नहीं, ना जाने कब पुचकारा था
फिर भी तुने सिर्फ इसे याद रखा, गलतियों को मेरे भुला दिया
करुणा की मूरत क्या! तू तो करुणामयी इश्वर है
निःस्वार्थ है माँ, तू कितनी, बिना चाहे कुछ, सारा संसार दिया।




इस अनजानी दुनिया में, बस तू ही तो है मेरी दुनिया
धन्य हुआ मेरा जीवन, तुने जो इतना प्यार किया
कृतज्ञ रहूँगा हर युग में, तुने जो मुझको जन्म दिया
इश्वर को हूँ मै नहीं मानता, पर तुझमे सबको पा है लिया
माँ, तुने ही मेरी इस श्रृष्टि का, है निर्माण किया
माँ... तुने ही मेरे इस जग का, है निर्माण किया...



* यह कविता मेरी, मेरे मित्रों की, पाठकों की और हर एक की माँ को समर्पित है!




                                                                           - कुमार प्रकाश सिंह 'सूरज'