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Friday, April 27, 2012

काश!! तुझे समझा पाता...

                                                                                                  

तुझ बिन, और भी मुश्किल है ये अंगारों भरी राहें
पर साथ अगर तू होती भी, तो कौन बड़ा मै चल पाता
आँखों में तेरे खोता मैं या पैरो को तेरे सहलाता
मयखाना जब हो साथ मेरे, मंदिर-मस्जिद किसको भाता


जो बुने थे सपने हमने, जो वादे किये थे मिल के
पाना है मुझे वो कैसे भी, खुद को हूँ अब उनमे पाता
जीने को पड़ा है सारा जीवन, मान ले ओ मेरे हमदम
बस ठहर जा दो पल को पगली, मै बस इतना समझाता


चाहूँ ये मै भी, तू हो हर पल मेरे ही संग
तेरी चुडीयों को खनकाता, तेरी बातों में रम जाता
तेरी जुल्फों से खेलता, तेरी पलकों को चूमता
बस होते मैं और तुम, ये सारा जग सिमट आता


जीने देगी न ये दुनिया, यूँ ही बैठा रह जाऊं तो
अब और नहीं कर सकता देर, काश तुझे समझा पाता
और क्या मैं बतलाऊँ तुझे, तू तो ले जिद बैठी है
लगता है तुझे, जीवन बस इक पल में ही खप जाता


रूठी गुड़िया बस सुन ले इतना, तू ही है मेरा सब कुछ
होता न अगर ऐसा तो सपने न ये खुद को दिखलाता
कल हो अपना भी सुन्दर, सारी खुशियाँ हो क़दमों तेरे
बस इसलिए तेरे नैनों को आज किए हूँ नम जाता

ठहर जा दो पल को पगली, कुछ पल में ही, मैं हूँ आता...


                                                     
                                                              
                                                                      - कुमार प्रकाश सिंह 'सूरज'


Sunday, April 8, 2012

क्यों



क्यों रहता हूँ यूँ बेमतलब औरों के साथ,
बातें न कर लूं खुद से, ये हो सकता है शायद।




कैसी है उलझन, कैसी है ये बेचैनी
मन तड़पता भी है और लगता भी...




क्यों है होता परिवर्तन ऐसा, मैं, तुम, सारा जग है बदला
पर क्यों वो सूरज, न चंदा, न एक तारा है बदला,
थे वो जैसे अब तक हैं वैसे, और नित्य रहेंगे...
पर हम-तुम कल न होंगे, फिर क्यों सारा जग है बदला।




वो खिड़कियों से झांकना ही अच्छा था, इस गलियारे में आने से
वो सपनो में हँसना ही अच्छा था, इस अंधियारे में आने से।




दूसरों में डूब जो लूं , तो रास्ता मिल जाए खुद को भुलाने के लिए,
मगर यहाँ तो हर एक भागा फिर रहा है, खुद से दूर जाने के लिए।




झूम उठती थी फिजा हर एक बात पर
अब तो न वो बातें रही और न हम
सुर से बहकी कुछ इस कदर ज़िन्दगी मेरी
लौट सके न वो पल और न हम...




क्या था मैं और क्या हो गया हूँ
था मैं ऐसा या खुद को खो गया हूँ...




जिस पल चाहूँ उसको
उस पल वो रहता नहीं
जिस पल पाऊँ उसको
वो पल मेरा होता नहीं




कुछ दबा पड़ा निकल ही जाता है
लाख छुपा लो उन्हें सीने में...


                                                 - कुमार प्रकाश सिंह 'सूरज '