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Saturday, May 19, 2012

अब तलक...



इश्क के बज़्म-ए-तरब* में ले आये हो मुझे,
अब बर्बादी पे हँसना सिखा दो ना सनम।





तू पास आ के यूँ दूर क्यों हैं,
दो कदम चलती क्यों नहीं...
तेरी जिद्द है तड़पाने की मुझको
या दूरियों से तुझे प्यार है...






दर्द के उस सफर में मै,
तेरा रास्ता था और तू मेरी मंजिल
मै अब तक हूँ बिछा पड़ा
तेरे क़दमों के निशाँ लिए हुए...





वादा-ए-वफ़ा था उसका की मुझे
उसके रहते कोई न दर्द दे पायेगा.
बड़ी मोहब्बत थी दिल में उसके,
हर एक दर्द दे अपना वादा निभाया।






तू यूँ ही दर ब दर भटकता है, 
तेरे सवाल में ही तो तेरा जवाब है
तू लाख भुला ले उसको
मगर ये बस तेरा ख़याल है|






नींद न भी आये उन्हें तो क्या,
जो जागना भूल गयें हैं,
आँखें बंद भी हो उनकी तो क्या,
जो देखना भूल गयें हैं।






दिखते हो फैयाज़* की तरह
चलते हो आलीम* की तरह
मिलते हो हमदर्द* की तरह
कहते हो वाइज़* की तरह
कभी मिल भी तो लो खुद से
ओ शहजाद-ए-तकब्बुर*
घुट घुट के मरते रहोगे
अपने ही लोगों की तरह...






अब तलक क्या खोया क्या पाया 
कब नफ्स* का जगना, कब सोना
क्या हिसाब लगाऊँ मैं इसका
बस कभी जीना हुआ, कभी मरना|

 


                                                          --कुमार प्रकाश सिंह 'सूरज'


*बज़्म-ए-तरब- Gathering of Hapiness
*फैयाज़- Munificent, Kind Hearted
*आलीम-Learned, Wise
*हमदर्द- Sympathetic 
*वाइज़- Preacher
*शहजाद-ए-तकब्बुर- Arrogance, Loftiness
*नफ्स- Soul

Wednesday, May 16, 2012

वक़्त

छाया चित्रण: कुमार प्रकाश सिंह 






ना ये बाज़ार रहेगा ना ये खरीदार रहेंगे
ये समय का किस्सा है, हर एक इसके कर्ज़दार रहेंगे...






                                                                                               --कुमार प्रकाश सिंह 'सूरज '       


Wednesday, May 9, 2012

आपके लिए


छाया चित्रण: निशिता बनर्जी


खूब जतन से तस्वीर बनायीं है बहुतो की,
मगर दिल में उतर सका न कोई
मगर आप तो हर तरफ नजर आती हैं इस कदर
की जैसे सहूलियत हो जीने में कोई।





Friday, April 27, 2012

काश!! तुझे समझा पाता...

                                                                                                  

तुझ बिन, और भी मुश्किल है ये अंगारों भरी राहें
पर साथ अगर तू होती भी, तो कौन बड़ा मै चल पाता
आँखों में तेरे खोता मैं या पैरो को तेरे सहलाता
मयखाना जब हो साथ मेरे, मंदिर-मस्जिद किसको भाता


जो बुने थे सपने हमने, जो वादे किये थे मिल के
पाना है मुझे वो कैसे भी, खुद को हूँ अब उनमे पाता
जीने को पड़ा है सारा जीवन, मान ले ओ मेरे हमदम
बस ठहर जा दो पल को पगली, मै बस इतना समझाता


चाहूँ ये मै भी, तू हो हर पल मेरे ही संग
तेरी चुडीयों को खनकाता, तेरी बातों में रम जाता
तेरी जुल्फों से खेलता, तेरी पलकों को चूमता
बस होते मैं और तुम, ये सारा जग सिमट आता


जीने देगी न ये दुनिया, यूँ ही बैठा रह जाऊं तो
अब और नहीं कर सकता देर, काश तुझे समझा पाता
और क्या मैं बतलाऊँ तुझे, तू तो ले जिद बैठी है
लगता है तुझे, जीवन बस इक पल में ही खप जाता


रूठी गुड़िया बस सुन ले इतना, तू ही है मेरा सब कुछ
होता न अगर ऐसा तो सपने न ये खुद को दिखलाता
कल हो अपना भी सुन्दर, सारी खुशियाँ हो क़दमों तेरे
बस इसलिए तेरे नैनों को आज किए हूँ नम जाता

ठहर जा दो पल को पगली, कुछ पल में ही, मैं हूँ आता...


                                                     
                                                              
                                                                      - कुमार प्रकाश सिंह 'सूरज'


Sunday, April 8, 2012

क्यों



क्यों रहता हूँ यूँ बेमतलब औरों के साथ,
बातें न कर लूं खुद से, ये हो सकता है शायद।




कैसी है उलझन, कैसी है ये बेचैनी
मन तड़पता भी है और लगता भी...




क्यों है होता परिवर्तन ऐसा, मैं, तुम, सारा जग है बदला
पर क्यों वो सूरज, न चंदा, न एक तारा है बदला,
थे वो जैसे अब तक हैं वैसे, और नित्य रहेंगे...
पर हम-तुम कल न होंगे, फिर क्यों सारा जग है बदला।




वो खिड़कियों से झांकना ही अच्छा था, इस गलियारे में आने से
वो सपनो में हँसना ही अच्छा था, इस अंधियारे में आने से।




दूसरों में डूब जो लूं , तो रास्ता मिल जाए खुद को भुलाने के लिए,
मगर यहाँ तो हर एक भागा फिर रहा है, खुद से दूर जाने के लिए।




झूम उठती थी फिजा हर एक बात पर
अब तो न वो बातें रही और न हम
सुर से बहकी कुछ इस कदर ज़िन्दगी मेरी
लौट सके न वो पल और न हम...




क्या था मैं और क्या हो गया हूँ
था मैं ऐसा या खुद को खो गया हूँ...




जिस पल चाहूँ उसको
उस पल वो रहता नहीं
जिस पल पाऊँ उसको
वो पल मेरा होता नहीं




कुछ दबा पड़ा निकल ही जाता है
लाख छुपा लो उन्हें सीने में...


                                                 - कुमार प्रकाश सिंह 'सूरज '





Saturday, March 24, 2012

माँ



कंठ में वाणी, इन्द्रियों में उर्जा का संचार किया
देख सकूँ मै सब कुछ, वो दृष्टि तुने प्रदान किया
ज्ञात करूँ मै सब कुछ, उस सात्विक ज्ञान का पाठ दिया
जीत सकूँ मैं सब कुछ, उस प्रबलता का वरदान दिया
माँ तुने मेरी इस श्रृष्टि का है निर्माण किया।




भूख मिटाती पहले मेरी, तब ही जा कुछ ग्रहण किया
सुख को मेरे सोंचकर, अपना सब कुछ त्याग दिया
हर पीड़ा को मेरे, ममता से अपने निष्प्राण किया
आंच न आये मुझपे, हर पल आँचल का छाँव दिया
समृद्धि-सौभाग्य को मेरे, हर इष्ट को ले उपवास किया।




कालचक्र अपनी गति से चलता रहा, सब कुछ बदलता रहा
मगर तुम न बदली माँ, तुमने तो जैसे प्रण था लिया
युवक हो चला था मै, पैरों पे खड़ा होने को था मै
डरती थी तुम, जब जब मैंने चौखट पार किया
अब तो न जाने कैसी होगी तुम...... माँ, तुने क्यों इतना प्यार किया।




दुत्कार दिया मैंने जब भी, तुने चुटकी में उसको भुला दिया
तेरी तरह तो मैं हूँ ही नहीं, ना जाने कब पुचकारा था
फिर भी तुने सिर्फ इसे याद रखा, गलतियों को मेरे भुला दिया
करुणा की मूरत क्या! तू तो करुणामयी इश्वर है
निःस्वार्थ है माँ, तू कितनी, बिना चाहे कुछ, सारा संसार दिया।




इस अनजानी दुनिया में, बस तू ही तो है मेरी दुनिया
धन्य हुआ मेरा जीवन, तुने जो इतना प्यार किया
कृतज्ञ रहूँगा हर युग में, तुने जो मुझको जन्म दिया
इश्वर को हूँ मै नहीं मानता, पर तुझमे सबको पा है लिया
माँ, तुने ही मेरी इस श्रृष्टि का, है निर्माण किया
माँ... तुने ही मेरे इस जग का, है निर्माण किया...



* यह कविता मेरी, मेरे मित्रों की, पाठकों की और हर एक की माँ को समर्पित है!




                                                                           - कुमार प्रकाश सिंह 'सूरज'





Saturday, February 18, 2012

तुम फिर भी हुए न मेरे



सोंचा है तुझे हर पल में
चाहा है तुझे बढ़ हद से
हर सपने दिए हैं खुद के 
हर आंसू पिए हैं तेरे
सब कुछ किया है मैंने
तुम फिर भी हुए न मेरे


तोडा है हर बंधन को
झुठलाया है सब को मैंने
सितम सहे हैं हर एक के
तुझे पाने को रब मेरे
सब कुछ किया है मैंने
तुम फिर भी हुए न मेरे


हर हर्फ़ है तुझको ले के
हर एक शेरो में मेरे
मन के कुचे थामे जब भी
बस चित्र उभरते हैं तेरे
सब कुछ किया...


देखा था जब से तुझको
सपनो में है तू मेरे
नींदें होती थी रातों की
अब वो भी हुए हैं तेरे
सब कुछ किया...


छुआ जो था मुझको तुने
क्या कशिश थी उस होने में
जादू सा हुआ था उस पल
जब महका जुल्फों को तेरे
सब कुछ किया...


वो साँसों की गर्मी है
अब तक चेहरे पे मेरे
वो अधरों* की नरमी है
अब तक लबों पे मेरे
सब कुछ किया...


मान लिया था उसे सब कुछ
जो वचन दिए थे तुने
सच मान लिया मैंने
हर एक विनोद* को तेरे
सब कुछ किया...


पास न होके भी बसती
है तू घर में मेरे
जीवन में न तू, तो क्या,
तू अब भी है सपनो में मेरे
सब कुछ किया है मैंने
तुम फिर भी हुए न मेरे...तुम फिर भी हुए न मेरे....


                                                     -कुमार प्रकाश सिंह 'सूरज'

*अधरों- होंठों
 *विनोद- मजाक, मसखरे