इस क्षणिक ख़ुशी की मोह में मैंने
मुंह कर्तव्यों से मोड़ लिया
जो पावन प्रण था मन में लिया
वह जीवन जीना छोड़ दिया॥
सुबह की बेला में सोकर
दिन अपना ही खुद से छीन लिया
अभी समय है बहुत, सोच
हर काम को कल पे छोड़ दिया॥
ऊँची इमारतों में जाकर मैं
आँगन के पेड़ को भूल गया
बाहर का कोलाहल सुनकर
चिड़ियों का चहकना भूल गया।।
झूठी सुन्दरता के भ्रम में
खुद को सवांरना छोड़ दिया
हर झूठ को सच कहता हूँ रहा
सच ने अब रिश्ता तोड़ लिया॥
लोगों की सुनते सुनते अब
खुद को ही सुनना छोड़ दिया
औरों में इतना उलझ गया
की आत्म विवेचन छोड़ दिया॥
गैरों से मिलते रहें हैं हम
अपनों को ही है भुला दिया
जीवन अपना अपनों का था
कलयुग ने, ये भी भुला दिया॥
भूल चुका था पावन प्रण मैं
फिर याद मुझे वह आया है
'सूरज' भूला था खुद के कर्म को
फिर याद मुझे नभ आया है॥
-सूरज
*(श्रीमान आदित्य भूषण मिश्र को सहृदय धन्यवाद, उनके मार्गदर्शन के बिना ये कविता किसी मूक व्यक्ति के स्वर की तरह होती॥)